Kashmiri Urdu poet Gulam Ahmed Mahjoor - Poetry Recited by Shakti Bareth

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shakti-bareth

2017-09-04T03:25:32-0400

बाग़ों के ‘वारिल’ [1] ‘रींज़िलों’ [2] को कर देंगे मटियामेट,
चिन्ता छोड़ो बुलबुल, पंख खोल हवा से कर लो भेंट,
अब के बाद जगत में तेरी रीत चलेगी रस्म चले-
रोशन हुई शिखर श्रृंखला।

हद से भी ज़्यादा शाखाएँ पेड़ जो कभी फैलाएँ,
माली ऐसे पेड़ों की ही तराशता है शाखाएँ,
तू भी अपनी सोच को सीमाओं में रखना, ध्यान रहे-
रोशन हुई शिखर श्रृंखला।


आज से ठीक 133 वर्ष पहले हिंदुस्तान के कश्मीर प्रान्त में एक शायर, कवि, लेखक का जन्म हुआ, यह बहुत बड़ी बात है कि आज उस बात को एक सदी गुजर जाने के बाद भी हम याद करने लायक


Peerzada Ghulam Ahmad ( 3 September 1885 − 9 April 1952), better known by the pen name Mahjoor was a renowned poet of the J&K Kashmir Valley, along with contemporaries. He is especially noted for introducing a new style into Kashmiri poetry and for expanding Kashmiri poetry into previously unexplored thematic realms. In addition to his poems in Kashmiri, Mahjoor is also noted for his poetic compositions in Persian and Urdu.Contents.


गुण गाओ, हमारे घर घर के अंदर घुस आई आज़ादी,
चिरकाल बाद हमको अब झलक दिखाने आई आज़ादी।

जब आज़ादी पहले हिंदुस्ताँ में प्रकट हुई,
भीड़ में बस लाखों लोगों को झोंकती आई आज़ादी।

पश्चिम के देशों पर रहमत की बरखा बरसाती है
ज़मीं हमारी पर बस गर्जन करती आई आज़ादी।

जुल्म, दलिद्दर, अनाचार और घरां में वीरानी,
हम पर ऐसी शोभन छाया, करती आई आज़ादी।

हम दासों से मोल लिवाते जालिम ज़ोर ज़बर्दस्ती,
चीजें, वही मुलम्मा करके, बेचने आई आज़ादी।

तुम क्या समझे आज़ादी ज्यों बाज़ारों में चना बिके ?
चाय विदेशी, होटल में चुस्कियाँ उड़ाती आज़ादी।
आज़ादी सुंदर मुर्गी है, सोने के अंडे देती,
उन अंड़ों को सेने हब तो उन पर बैठी आज़ादी।

यह आज़ादी हूर स्वर्ग की है, क्या घर घर जाएगी ?
बस केवल कुछ चुने घरों में घूम झूमती आज़़ादी।

आज़ादी कहती है पूँजीवाद नहीं रहने देगी,
अब बटोरने लगी है पूँजी अपनों से ही आज़ादी।
आज़ादी लोगों पर ‘हारी पर्बत’ [1] सी भारी पड़ती
किस्मत वालों को फूलों सी कोमल, हल्की आज़ादी।

देकर लगाने लौटे, बतियाते खलिहानों में यों-
हमरा दाना दाना सब कुद छीन ले गई आज़ादी।

पहले के ज़ालिम शासक, आठ लेते थे प्रति खिरवार [2]
चौदह देकर अब छूट सके, जब से घर आई आज़ादी।

मुट्ठी भर चावल को उसकी काँख तलाशी जगह जगह
अब छिपा टोकरी पल्लू में, कुंजड़न ले आई आज़ादी।

नबी शेख [3] समझे मतलब, उसकी बीवी ले उठा गए
वह फर्यादी हुआ, पर उधर बच्चा ब्याई, आज़ादी।

मुर्ग कबूतर [4]
मुर्ग व्यवस्था देश में ऐसी, लेकर आई आज़ादी।

Shakti Bareth

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